अनाज (eating-grains)ऐसी घास के बीज हैं जो केवल गाय, घोड़े, भैंस, चूहे तथा पक्षियों जैसे चौपाये प्राणियों का आहार है,जो इसका कच्चा स्टार्च आसानी से पचा सकते हैं। मानव न तो इस कच्चे स्टार्च को पचा सकता है, और न कच्चे अनाज के दानों के प्रति उसका कोई स्वाभाविक आकर्षण है। परम्परागत आदतों के कारण इसे हम अपनाये हुए हैं। में जानता हूँ, आपको यह बातें बड़ी चौकाने वाली लगेंगी,परन्तु यह सत्य है। आइये, कुछ अन्य तथ्यों पर गौर करें।
मानव अन्नहारी नहीं है, न खेती प्रधान प्राणी है। खेतियाँ (फसलें) धरती के पर्यावरण को नष्ट करती हैं, असंतुलित करती हैं,जमीन सपाट करनी होती हैं, पेड़ काटने होते हैं, नदियों का पानी जबरदस्ती मोड़ना पड़ता है,कुएँ खोदने पड़ते हैं,बैलों के साथ खुद को जुतना पड़ता है (बेचारे बैलों को फालतू में अपने स्वार्थ के लिए जबरदस्ती जोत दिया, किस हक से ? यह घोर हिंसा है)।
संसार में किसी भी प्राणी को आहार पैदा करने के लिए इतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती, हाँ शायद ढूंढने में मेहनत करनी पड़ जायें। मानव फालतू में ही (मजबूरी में ही कष्टदायक खेतियाँ अपने गले लगा बैठा। हमें खेतियाँ या फसलों की नहीं, वृक्षों की आवश्यकता हैं, जो धरती का पर्यावरण सहज ही बनाये रखते हैं। जिसमें न तो नदियों के मुख मोड़ने पड़ते हैं,न वर्षा का इंतजार करना होता है, न धरती को सपाट करना पड़ता है, न बैलों की तरह कठिन श्रम का आहार पैदा करना पड़ता है।
बैल और किसान गर्व की निशानी नहीं-अपने हाथों गले लगाये नारकीय जीवन की निशानी है।
- खेतियाँ अगर गाय, बकरी,चूहे,पक्षी खाते हैं तो वह गलत नहीं है, वह उनका ही आहार है।
2. कितने नखरों से गुजरकर अनाज को हमारे पेट तक पहुँचना पड़ता है,पहले धुनो, बीनो, फिर पीसो, फिर पकाओ फिर मसालों से या मिठास द्वारा खाओ और फिर खूब मेहनत कर पचाओ।
3. सिर्फ अनाज को पेट तक पहुँचाने के लिये हमें बैल,ट्रेक्टर,कुएँ,धुनने की मशीनें,मजदूरों की भीड़ पिसने की चक्की, पकाने के बर्तन, आग (गैस, चूल्हे) , मसाले, तेल- घी, इत्यादि जुटाने पड़ते हैं तब कहीं जाकर यह अन्न हम तक पहुंचता है और हम यह समझकर जिये जा रहे हैं कि यह पीड़ा,प्राकृतिक है जीवन का अंग है।
4. अन्न न तो कच्चा खाने का हमें कोई आकर्षण है न ही उबालकर खाने का, उबाला हुआ गेहूँ, ज्वार, बाजरा बगैर चीनी,मसाले के फीके, मजबूरीवश या जीने के लिए भले ही खा लें परन्तु फल-मेवों की तरह मस्ती से नहीं खा सकते। अन्न केवल कड़क भूख में ही मीठे लगते हैं और मुश्किल से (बगैर मसालों के) थोड़ी मात्रा में खाए जा सकते हैं। अकेला अन्न आप खा ही नहीं सकते, आपको इसे किसी न किसी के सहारे खाना पड़ता हैं। नमक,चीनी, मसाले, घी, मक्खन,प्याज,हरी मिर्च,चटनी,दाल या सब्जी इनमें से जब कोई सहारा नहीं मिले,अन्न खाना ही मुश्किल लगता हैं। इतनी निर्भयता ? किसलिये ? हम बनावटी स्वाद पैदा करके न खाने योग्य आहार को किसी तरह खाने योग्य बनाते हैं।
इसका अर्थ ये हुआ कि जब तक समुन्द्र में नमक नहीं आयेगा, जब तक मिर्च मसाले, सब्जियाँ, दालें पैदा नहीं होगी, जब तक गाय दूध देकर घी नहीं देगी,जब तक ढेर सारे मशीनें, बर्तन, आग नहीं जुटायेंगे तब तक अन्न पेट तक नहीं पहुंचेगा। है न कितनी आश्चर्य की बात ? मान लिया जाये कि इतनी मेहनत करने को भी मानव तैयार है तो क्या यही अन्न खाकर मानव समाज रोगमुक्त हैं ? जीवन के अंत में हर व्यक्ति कोई न कोई रोग से ग्रसित होकर या क्षीण होकर मरता है,जो अप्राकृतिक है।
5. अन्न अम्लकारक आहार है। हमारे शरीर को 80 प्रतिशत क्षार तत्व के आहार चाहिये जो फल-सब्जियों में है,मेवे में है। अन्न की अम्लता हमारे सारे रोग एवं शीघ्र का कारण है। केवल अन्न पर रहने वाले व्यक्ति कभी स्वस्थ नहीं रह सकते। केवल अंकुरित एवं हरे ताजे अन्न ही क्षारकारक होते हैं,मानव इस हरे-अंकुरित अन्न पर रोग रहित तो रह सकता है परन्तु केवल इसी अकेले आहार पर नहीं क्योंकि ये सभी अन्य आवश्यकतायें पूर्ति नहीं करते। इन्हें मेवे, फल, सलाद के साथ ही उपयोग कर सकते हैं।
अन्न का संपूर्ण, शत-प्रतिशत पाचन नहीं होता (इसमें स्टार्च, प्रोटीन एक साथ होने के कारण), इसका सबसे बड़ा प्रमाण हमारे शौच में अधपचे स्टार्च एवं प्रोटीन के कारण बदबू का होना है जो नहीं होनी चाहिये। शाहकारी प्राणी (गाय,घोड़े,हाथी, ऊँट, बकरी आदि)के मल में कभी बदबू नहीं होती (या हल्की सहनीय बदबू होती है) यह अधपचा अन्न का मल हमारे कई रोगों का कारण है।
पके हुए अन्न के कणों के मुहँ में सड़ने के कारण ही अधिकतम दाँतों की बीमारियाँ होती है, अंकुरित अन्न से नहीं।
अन्न शरीर एवं पाचन ग्रन्थियों पर जबर्दस्त बोझ है इन्हें पचाकर शर्करा एवं पौषण प्राप्त करने में शरीर कई घंटे अधिक श्रम अधिक पाचक रस देकर पचाना होता है। यही शर्करा हमें फलों से शीघ्र मिल जाती हैं । बहुत थोड़ी मेहनत एवं पाचक रसों से। इसलिये मानव की ये पाचन ग्रन्थियाँ तथा अन्य ग्रन्थियाँ अधिक श्रम कर, अधेड़ अवस्था के बाद या तो टूट जाती हैं या कमजोर हो जाती हैं,
किसी भी जीवित मानव का पेट चिर कर देखा जाये तो उसकी पाचन ग्रन्थियाँ, दुगनी-तिगुनी साइज में बढ़ी हुई मिलेंगी जिसे hypertrophied या enlargement कहा जाता है। संसार में किसी प्राणी के पाचन अंग कमजोर या क्षीण नहीं होते,न ही टूटते हैं सिवाय मानव के (जिसका कारण ये पराये आहार हैं)।
अन्न में मेवों की तरह सम्पूर्ण प्रोटीन (आवश्यक एमीनो-अम्ल)नहीं होते,इसलिए इन्हें हमेशा किसी अन्य अन्न,दाल,प्रोटीन जैसी वस्तुओं के साथ खाकर पूरा करना पड़ता है और यही गलत मेल अपच,गैस एवं विषाक्तत्ता का बहुत बड़ा कारण बनते हैं। यही बात अपने आप में प्रमाण है की अन्न मानव के लिए अधूरा खाद्य है, जिसके कारण इसे किसी -न -किसी आहार के साथ खाकर संतुलित करना पड़ता और अन्य आहार पर निर्भर रहना पड़ता है। एक आहार की दूसरे आहार पर निर्भयता अप्राकृतिक है।
प्रकृति ने कोई भी आहार किसी अन्य आहार पर निर्भर नहीं रखा है,किसी भी अन्न में सम्पूर्ण प्रोटीन नहीं है। इसी कारण हमें सम्पूर्ण प्रोटीन पाने के लिए तरह-तरह के अन्न-दालें उपयोग करने पड़ते हैं। यही अप्राकृतिक असंतुलित आहार हमें रोगी बनाता है।
अनाज मानव के लिए कितना अप्राकृतिक आहार हैं, यह कोई भी अनुभव से तभी जान सकता है, जब वह 3 महीने केवल अपक्वाहार (फल,मेवे,सलाद,अंकुरित) पर रहे और फिर पका हुआ अन्न खाये। शरीर इतना जबरदस्त विरोध करेगा कि उसे दस्त लग जायेंगे। सारा शरीर अजीब-सी विषाक्तत्ता एवं नशीलेपन का अनुभव करेगा। ऐसा लगेगा जैसे कोई विष द्रव्य या गलत आहार खा लिया हो इस सच्चाई को आप तब तक नहीं जान पायेंगे, जब तक आप स्वंय अनाज से कुछ महीने मुक्त रहकर फिर उपयोग नहीं करेंगे। हम सब अनाज के नशे के उसी तरह आदी हो चुके हैं, जिस तरह मसालों के, नमक के, चाय के, शराब के आदी होते हैं। नियमित आदत एवं उपयोग के कारण यह पराया आहार भी सामान्य आहार लगता है।
अनाज का एक अन्य दुर्गुण यह भी है कि यह शरीर में शीघ्र जकड़न, कड़ापन एवं बुढ़ापा लाता है। जो लोग अधिकतर केवल अनाज का उपयोग कर रहे होते हैं,उनके बाल जल्दी सफेद होते हैं, दांत शीघ्र खराब होते हैं। शरीर का लचीलापन समाप्त हो जाने से कड़ापन आ जाता है।
अनाज के इन्हीं दुर्गुणों के कारण हमें योगासन को अपनाना पड़ा। अपक्वाहार में शरीर स्वाभाविक रूप से लचीला होता है। अनाज के इस दुर्गुण का कारण इसमें पृथ्वी तत्व का ज्यादा होना है।
अनाज एवं दूध के कारण ही बालक सर्दी, जुकाम,फोड़े-फुंसी, चर्म रोग,पेट के कीड़े,कान के दर्द, एलर्जी जैसे रोगों से पीड़ित होते है और हम इसे सामान्य मानकर वातावरण,कीटाणुओं, भाग्य या ईश्वर को दोषी ठहराकर सांत्वना पा लेते हैं।
जो बालक केवल फल-मेवों पर पलता हैं, यह रोग होते ही नहीं,यह मेरा ठोस प्रयोग सिद्ध अनुभव है।
जवान होने के बाद भी जो लोग बार- बार बीमार पड़ते रहते है या मौसम से प्रभावित होकर बीमार पड़ते है, उसका कारण भी यही अनाज है, मौसम नहीं। अनाज सेवन करते हुए आप किसी भी रोग से खासकर जटिल रोग से कभी मुक्त नहीं हो सकते,कुछ दिन अनाज को त्यागकर ही इन रोगों से शीघ्र बाहर निकल सकते हैं, जटिल रोगों में तो कई महीनों तक अनाज से दूर रहना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि अनाज रोग को शीघ्र ठीक नहीं होने देता (अंकुरित एवं हरे ताजे अन्न उपयोगी हैं)
अनाज के दुर्गुण का प्रभाव बाल अवस्था में छोटे-मोटे रोगों के रूप में प्रकट होता रहता है, परन्तु इसके हानिकारक प्रभाव दूध,मांसहार की तरह बहुत लम्बी अवस्था के बाद जाकर अनुभव होते हैं। इसलिये हर अन्न खाने वाला व्यक्ति किसी-न-किसी रोग से ग्रसित होकर सालों तक इससे पीड़ित रहकर उपचार करते-करते अंत में अधकच्ची,असमय मृत्यु को प्राप्त होता है और हम इससे प्रभु की इच्छा कहकर संतोष कर लेते हैं।
हम सड़कर मरते हैं,पककर नहीं। यह अस्वाभविक हैं,अप्राकृतिक है। मानव की उम्र वैसे तो 900 साल आँकी गई है, परन्तु 300 साल तो आहार में जाकर बस गया और मजबूरी में वो ही आहार अपना बैठा जो अन्य प्राणियों के लिए उपलब्ध था,जिसका परिणाम आज की सभ्यता भी भुगत रही है और आने वाली सभ्यता भी भुगतेगी।